"ईश्वर को मरते देखा है!"-- स्वयं से साक्षात्कार करवाती कविताएँ


क्या आपने कभी ईश्वर को मरते हुए देखा है? यदि नहीं! और ऐसे में आपको कोई रचना दिख जाए जिसका नाम हो "ईश्वर को मरते हुए देखा है!" तो निश्चित है यह आपके अंदर प्रश्न उठेगा के लेखक या कवि ने ऐसा क्यों लिखा है? क्यों  वह ईश्वर जो सबका सृजन करता है उसे मरते हुए देख रहा है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर आपको युवा कवि और चित्रकार रोहित प्रसाद 'पथिक' का पहला काव्य संग्रह "ईश्वर को मरते देखा है!" से प्राप्त होगा। इस काव्य संग्रह में कवि ने मनुष्य को मनुष्य होने की सहूलियत दिया है और समाज में हो रहे अत्याचार, तंत्र  की अव्यवस्था आदि को अपनी कविताओं के माध्यम से दिखाया है।
एक युवा कवि जिसमें अभी-अभी अंकुरण हुई हो और कुसमय ें ही पूर्णत: परिपक्वता प्राप्त कर लिया हो एवं जिसका पहला काव्य संग्रह ही गंभीर विषय पर आधारित हो तो वाकई उस कवि ने कुछ समय में ही इस दुनिया को समझ चुका है। वह समझ चुका है इस समाज में किस प्रकार के लोग रहते हैं, आज का समाज किस प्रकार का है? वह समाज के हर पहलू को देख-परख लिया है। जैसा कि युवा कवि निशांत इस काव्य संग्रह की भूमिका में लिखते हैं..." एक युवा कवि जिसकी दाढ़ी-मूछें अभी ठीक से फूटी भी ना हो लेकिन कविता की वाग्धारा फूट पड़ी हो। बरसात की बूंदों की तरह कविता उसके कलम से झर रही हो तो आने वाले सालों में वह भारत का कालिदास हो तो आश्चर्य की बात ना होगी।"

                                ईश्वर को मरते देखा है!


  प्रस्तुत कविता पाठक को आत्म साक्षात्कार का मौका देती है। इनकी कविताएं आपको यह मौका देती है कि आप इस समाज के बारे में सोच सके। यह कविता संग्रह  समाज में हो रहे विभिन्न प्रकार के अत्याचार, शोषण आदि को देखने-परखने का मौका देती है। कवि अपने अनुभव को शब्द रूप देकर पाठक तक पहुंचने में सफल होते हुए दिखते है। इस काव्य संग्रह की पहली ही कविता  है "ईश्वर को मरते देखा है!" जिसमें कवि दुख-दर्द, कराह, तड़पन, चीखें, मृत्यु आदि के बीच ईश्वर को मरते हुए देख रहा है......
" जब महिलाएँ रास्तों पर जवाब मांगते हुए घायल हो जाएं
जब पन्नों और अखबारों पर काली स्याही मौन हो
तब ईश्वर दवाखाने में दर्द से कराहते हैं
जब बम गोली से
मासूम बच्चियों के साथ
उनकी आशाओं की नन्ही गुड़िया भी टूट जाएं
तब मैंने ईश्वर को मरते देखा है...।"
कवि यह समझ चुका है कि जब कोई दर्द से कराहता है तब ईश्वर नहीं आते उसके दर्द को कम करने। जब किसी स्त्री के साथ शोषण होता है तब ईश्वर नहीं आते उसे बचाने। शायद! सच में ईश्वर की मृत्यु हो गई है?
कवि जो कि स्वयं एक चित्रकार है, वह जो भी कविताएं लिखते हैं पाठक के सामने एक चित्र बनाता जाता हैं। 'जली हुई रोटी' कविता हो या 'लोकतंत्र' हो या 'दरवाजा' हो या 'एक मुट्ठी आकाश' या 'छवि' या 'हिटलर' या 'पानी में कविता'। सभी कविताएं स्वयं में अद्भुत है। "जली हुई रोटी" कविता में कवि माँ के विराट स्वरूप का चित्रण करते हैं। माँ स्वयं कुछ खाये या ना खाये अपने बच्चों को जरूर खिलाती है। इस कविता में कवि ने दिखाया है कि माँ जब रोटी बनाती है तो एक-दो रोटी जल जाती है जिसे वह सबसे नीचे रख देती है और अंत में उसे स्वयं खाती है पर अच्छी रोटियां बच्चों को खिलाती है।
" हमेशा अच्छी रोटी मेरे लिए और
अंतिम रोटी माँ अपने आंचल में छुपा लेती है अपने लिए।"
यह अंतिम रोटी वही रोटी है जो जल चुकी है। माँ उसे छुपा लेती है ताकि बच्चें उसे देख न ले कि माँ जली रोटी खायेगी।
इस कविता को पढ़ पाठक कवि के परिपक्वता से परिचित हो जाता है। कोई भी कवि जब तक समाज को अपनी कविताओं में न दिखाये उसकी कविता, कविता नहीं रह सकती। कहा भी जाता है साहित्य समाज का दर्पण है। ऐसे
में साहित्य की प्रत्येक विधा समाज को आईना दिखाती है।

                          कवि- रोहित प्रसाद पथिक


          एक अन्य कविता "नैचुरल झूठ" में कवि ने झूठ बोलने, बहाने बनाने वाले लोगों पर तंज कसा है। किसी-किसी  के लिए झूठ बोलना खिलौना जैसा होता है जब मन किया तब खेल लिया। कई लोग बहुत आसानी से झूठ बोल लेते हैं और उन पर दूसरे लोग विश्वास भी कर लेते हैं।
"मैं झूठ बोलता चला गया
एकदम सिलसिलेवार
कारण बताता धूप, बारिश और ठंड
और दफ़्तर से रिश्तेदारों तक
सब मान जा रहे हैं
चाहे वह प्यारा झूठ हो या स्वार्थी
पर मैंने तमाम झूठ के बदले
स्वयं का आविष्कार किया है
वह है मेरा नैचुरल झूठ।"
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य जब किसी चीज को करने में मगन हो जाता है, चाहे वह गलत कार्य ही क्यों ना हो तब बहुत लोग उसकी इस कृत्य से परिचित नहीं हो पाते हैं। वे बाह्य रूप में कुछ और, तथा आंतरिक रूप में कुछ और होते हैं।
जीवन की क्षणभंगुरता को कवि ने "सूखे पत्ते की संवेदना" शीर्षक कविता से व्यक्त किया है....
"वह पेड़ की किसी एक डाल से
बहुत ही हिचकते हुए धरा पर आ
धमका
मैंने उससे पूछा-
क्यों तुम गिर गए?
पत्ता बोला-
जीवन में एक समय बाद
अपनी औकात में आ जाना पड़ता है_"
इसी प्रकार कवि मर जाने को जीने से बेहतर मानता है। "लाश" शीर्षक कविता में कवि इस प्रकार कहता है__
"मर जाना
जीने से
कई गुना बेहतर है
क्योंकि हर लाश को नसीब होती है
कफन
चिता
फूल भी और आत्म शांति
जो बेहतर है
एक दकियानूसी जीवन के
मंसूबों से..."
कवि ने जाति-पाँति की व्यवस्था पर भी व्यंग किया है। कविता "जातिवाद'' शीर्षक में कवि कहता है_
जाति ने जब सत्ता 
का स्वाद चखा है
तब से मीडिया में
एक संवाद शुरू हुआ है
जिसे हम जातिवाद कहते हैं।"
   इसी प्रकार इस संग्रह की प्रत्येक कविता समाज की एक एक समस्या पर चोट करती है और पाठक के मस्तिष्क में छाप छोड़ती है। एक जन्म लेते कवि जिसे अभी बहुत आगे जाना है उसकी वाणी इतनी व्यवस्थित, इतनी प्रभावशाली है कि अपनी हर कविता से कुछ ना कुछ संदेश दे जाता है। जैसा कि अंत में उनकी "लोकतंत्र" कविता देखिये__
"बचाओ... बचाओ... बचाओ..
कहना मुनासिब नहीं
लिखो
जीवित
होने की आत्मकथा
यदि चाहते हो लोकतंत्र
तो समझो
अपनी देश की मिट्टी को
जिसमें एक सुगंध है आजादी की।"

_______________________________________________

समीक्षक- प्रेम कुमार साव

शिक्षा- पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान विश्वविद्यालय में एम. फिल. हिंदी का शोधार्थी

पता- कोटा चंडीपुर, पानागढ़, 713420

जिला- पूर्व बर्दवान 

Gmail- premkumarshaw657@gmail.com


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