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Showing posts from August, 2020

मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास " मल्लिका " की समीक्षा

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इति हास में खोयी हुई नारी और ' मल्लिका ' उपन्यास:--- मल्लिका इतिहास की एक ऐसी उपेक्षित महिला है जिसने साहित्य में तो अपना अमूल्य योगदान दिया लेकिन उनके अवदान को किसी हिंदी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं समझा। यही कारण है कि हम मल्लिका के बारे में इतिहास के किसी भी पन्ने में नहीं पड़ते हैं। इसी उपेक्षित महिला के महत्व को समकालीन कथा लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ (जो कि अपनी विशेष प्रकार की कथाओं के लिए प्रसिद्ध है) ने उजागर करने का प्रयास किया है।           मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने बहुत ही बारीकी से इतिहास को खंगाला है, तत्पश्चात उन्होंने मल्लिका के जीवन को उघाड़ने का प्रयास किया है। "मल्लिका " उपन्यास में लेखिका ग़ल्प  तथा कल्पना के पुट  से ऐसी रचना का निर्माण किया है जो अतुलनीय है जिसका कोई तोड़ नहीं है। जैसा कि मनीषा जी ने उपन्यास के प्राक्कथन में ही स्पष्ट कर दिया है कि " मल्लिका की कथा ग़लत होते हुए भी ऐसे संपूर्ण व्यक्ति की कहानी है जो हाड़-मांस से बना, किन्हीं बीते वक्तों में भी जीता हुआ, सांस लेता था। उसके होने के अल्प ही सही ओझल ही सही मगर प्रमाण है। ( मल्लिका

अक्टूबर जंक्शन उपन्यास की महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ

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  अक्टूबर जंक्शन उपन्यास की महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ जो हमारे जीवन से जुड़े हैं या किसी रूप में जुड़ सकते हैं। ---------------------------------------------------------------------- यह कहानी शुरू ही ना हुई होती। अगर उस वेटर ने अपना बिजनेस बढ़ाने के चक्कर में इन दोनों को साथ नहीं बैठा दिया होता। इस कहानी में वेटर का काम इतना ही था। अब वह इन का आर्डर देने के बाद कभी वापिस नहीं आएगा। आपने कभी सोचा है। रोज तमाम कहानियां ऐसे ही वह लोग शुरू करते हैं जिनको कभी पता ही नहीं चलता कि वह कहानी का कितना अहम हिस्सा है। हर अधूरी मुलाकात एक पूरी मुलाकात की उम्मीद लेकर आती है। हर पूरी मुलाकात अगली पूरी मुलाकात से पहले की अधूरी मुलाकात बन कर रह जाती है। एक अधूरी उम्मीद ही तो है जिसके सहारे हम बूढ़े हो कर भी बूढ़े नहीं होते हैं। किसी बूढ़े आशिक ने मरने से ठीक पहले कहा था कि एक छटांक भर उम्मीद पर साली इतनी बड़ी दुनिया टिक सकती है तो मरने के बाद दूसरी दुनिया में उसकी उम्मीद बनकर तो मर ही सकता हूं। बूढ़ों की उम्मीद भरी बातें सुननी चाहिए। अच्छी लगती है, बस उन पर यकीन नहीं करना चाहिए। लेकिन यह सब बातें एक उ

कुठाँव (२०१९) उपन्यास की समीक्षा

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  जातिवाद एक ऐसी समस्या है जो समाज में लोगों के बीच दूरियां उत्पन्न करती है। ऊंच-नीच का भाव हर धर्म में मौजूद है, चाहे वह हिंदू धर्म हो , मुस्लिम धर्म हो या कोई अन्य धर्म। प्रस्तुत उपन्यास "कुठांव" अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा रचित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें मूल रूप से मुस्लिम समाज में उपस्थित जात-पात को परत दर परत खोल कर सामने रखने का प्रयास किया गया हैं तथा हम देखते हैं कि जिस प्रकार से जातिवाद हिंदुओं में हैं, छोटी जाति,बड़ी जाति का भाव जिस प्रकार से हिंदुओं में जड़ बनी हुई है ठीक उसी तरह मुस्लिम संप्रदाय में भी जातिवाद फैला हुआ है।     कुठाँव शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है  "अनुप्रयुक्त स्थान"। इसका एक और अर्थ होता है," शरीर का कोमल या सुकुमार अंग"। इन दोनों ही अर्थों का चरितार्थ हमें उपन्यास पढ़ते पढ़ते पता चल जाता है।      उपन्यास के बारे में उपन्यास के बाह्य पृष्ठ में लिखा गया है कि 'कुठाँव' में स्त्री और पुरुष का, प्रेम और वासना का, हिंदू और मुसलमान का, ऊंची-नीची जातियों का एक भीषण परिदृश्य रचा गया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह समाज की आंतरिक विडंबना औ