मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास " मल्लिका " की समीक्षा

इतिहास में खोयी हुई नारी और 'मल्लिका' उपन्यास:---

मल्लिका इतिहास की एक ऐसी उपेक्षित महिला है जिसने साहित्य में तो अपना अमूल्य योगदान दिया लेकिन उनके अवदान को किसी हिंदी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं समझा। यही कारण है कि हम मल्लिका के बारे में इतिहास के किसी भी पन्ने में नहीं पड़ते हैं। इसी उपेक्षित महिला के महत्व को समकालीन कथा लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ (जो कि अपनी विशेष प्रकार की कथाओं के लिए प्रसिद्ध है) ने उजागर करने का प्रयास किया है।
          मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने बहुत ही बारीकी से इतिहास को खंगाला है, तत्पश्चात उन्होंने मल्लिका के जीवन को उघाड़ने का प्रयास किया है। "मल्लिका" उपन्यास में लेखिका ग़ल्प  तथा कल्पना के पुट  से ऐसी रचना का निर्माण किया है जो अतुलनीय है जिसका कोई तोड़ नहीं है। जैसा कि मनीषा जी ने उपन्यास के प्राक्कथन में ही स्पष्ट कर दिया है कि "मल्लिका की कथा ग़लत होते हुए भी ऐसे संपूर्ण व्यक्ति की कहानी है जो हाड़-मांस से बना, किन्हीं बीते वक्तों में भी जीता हुआ, सांस लेता था। उसके होने के अल्प ही सही ओझल ही सही मगर प्रमाण है। ( मल्लिका... पृष्ठ-५)



मल्लिका उपन्यास में कई समस्याओं को उठाने का प्रयास किया गया है। मूल रूप से एक उपेक्षित नारी को प्रतिष्ठित करना इस उपन्यास का लक्ष्य है तो गौण रूप से बाल विवाह की समस्या को दिखाना, प्रेम समस्या को दिखाना और  भी कई समस्या है जिनको दिखाने का प्रयास किया गया है। उपन्यास के प्रारंभ में हम देखते हैं कि मल्लिका बंगाल के केशवपुर नामक छोटी सी गांव में पलती है और उतनी ही दूर के वातावरण से परिचित हैं। कम उम्र में ही यानी 9 वर्ष के लगभग मल्लिका के पिता मल्लिका का विवाह कोलकाता के संभ्रांत परिवार में कर देते हैं, लेकिन मल्लिका का  भाग्य खराब था कि जिस बाल समय में उसे लिखना- पढ़ना चाहिए, खेलना चाहिए उसे अपने पति सुब्रत ( जिसकी मृत्यु यक्ष्मा के प्रकोप के कारण हो जाता है) का वैधव्य झेलना पड़ा। मनीषा कुलश्रेष्ठ जी बड़ी सहज भाषा में उस समय की महिलाओं की स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त करते हुए कहती हैं कि "बंगाल में उन दिनों कन्याओं को बिन पुरुष छाया रहने ही नहीं दिया जाता था। मन में पहली भाव तरंग उठने से पहले ही, यानी जब वे खेलकूद की मासूम दुनिया में मगन रहती थी तभी किसी दिन ढोल शहनाई बजाकर उन्हें विवाह के बंधन में बांध दिया जाता था। ऐसा ही मल्लि और शिउली  के संग हुआ। अनिर्बान  के विरोध के बाद भी मिठाई बाबू ने सामाजिक आलोचना से बचने के लिए दोनों को एक ही मंडप तले ब्याह दिया।"( पृष्ठ-३०)
बंगाल के छोटे से ग्राम से मल्लिका का जब काशी जैसे महान स्थली में आगमन होता है तो उसे यहां भारतेंदु का स्नेह मिलता है। मल्लिका भारतेंदु से प्रेम करने लगती है लेकिन इस प्रेम को वह रूप नहीं मिला जो मिलना चाहिए। यह प्रेम बस प्रेम बन कर ही रह गया। भारतेंदु भी मल्लिका से प्रेम करते हैं और वे मालिका को श्रेष्ठ स्थान देते हैं। वे कहते हैं " हां तुम वह हो जहां में सबसे हताश होकर आता हूं, खराब नहीं लगता कि मैं प्रतिदान में आखिर क्या देता हूं?" लेकिन भारतेंदु मल्लिका को बस 'धर्मपोषिता' के रूप में ही स्थान दे सके। यही मल्लिका के जीवन की सबसे बड़ी असफलता थी। हर कुछ से हार कर उसे भारतेंदु का हृदय निवास के लिए मिला था पर वह भी अब उसके लिए असह्य हो गया।
   मनीषा कुलश्रेष्ठ से इस उपन्यास को इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं कि यह जीवनी से लगती है और हम पढ़ते-पढ़ते इस जीवनी रूपी उपन्यास में पूरी तरह से जुड़ जाते हैं। मल्लिका का बचपन से लेकर काशी तक तथा उसके बाद भारतेंदु के मृत्यु के पश्चात उसके  वृंदावन जाने तक की जीवन रेखा को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसलिए हम इसे जीवनी परक उपन्यास के रूप में भी देख सकते हैं।


मनीषा कुलश्रेष्ठ

  मल्लिका का सबसे बड़ा योगदान उसकी साहित्यिक कृतियां थी जिसे इतिहास में स्थान नहीं दिया गया। "कुमुदिनी" जिसकी रचना परीक्षा गुरु से पहले की गई थी कहीं भी इसकी चर्चा नहीं मिलती। जबकि यह उपन्यास भी समकालीन समय की समस्या को उजागर  करती है तथा यह एक दुर्लभ कृति है लेकिन मल्लिका  चूँकी महिला थी और उस समय महिलाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था और विशेष महत्व नहीं दिया जाता था। इसलिए मल्लिका को दरकिनार कर दिया गया और परीक्षा गुरु जिसकी रचना बाद हुई थी, प्रथम उपन्यास घोषित कर दिया गया और सबसे बड़ी बात यह है कि महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने इसे अंग्रेजी ढंग का पहला उपन्यास माना।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि मल्लिका उपन्यास को बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसे पढ़ने के साथ ही हम मलिका से भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं और उसके हर समस्या से अपनी तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं। आज की महान लेखिका मृदुला गर्ग ने मनीषा कुलश्रेष्ठ के इस उपन्यास पर अपनी शुभ आशीष देते हुए लिखा है कि "मल्लिका को स्त्री होने के कारण इतिहास से पहचान नहीं मिली, इस कष्ट का निवारण लेखिका ने किया पर उससे श्रेष्ठ कार्य किया कि उसके व्यक्तित्व को, उस पहचान से ऊपर उठा दिया।"( मृदुला गर्ग, )



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