लापता लेडीज : गुमशुदा 'जिंदगी' की तलाश

 आज से सिर्फ बीस-तीस वर्ष पहले गाँव में जन्म लेना और आसानी से अपनी जिंदगी अपनी महत्वाकांक्षा के अनुसार जीना बहुत मुश्किल थी और अगर आपका जन्म एक लड़की के रूप में हुआ हो तब वह मुश्किल सौ गुना बढ़ जाती है। जब लड़की माईके में रहती है उसकी जिंदगी घर से खेत, खेत से घर के ईर्द गिर्द घूमती रहती है और जब वह ससुराल जाती है तो वहाँ इन सब के अलावा पति की परिचर्या भी करनी पड़ती है। उसका हर कहा सुनना पड़ता है। वह पति, परमेश्वर बन जाता है। माईके में उसे इस प्रकार ढाला जाता है कि थोड़ी बड़ी होते ही उसके मन में शादी के सपने सजने लगते हैं। पति को परमेश्वर मानना। पति का नाम मुँह से न लेना। हमेशा घुँघट काढ़े रहना आदि- आदि अनेक ऐसे मोह है जिसके पाश में गाँव-देहात की लड़की जन्म के बाद से ही आने लगती है। इसी पाश रूपी जिंदगी में से यदि कोई गाँव की लड़की पढ़ने-लिखने का सपना देखती है। पढ़ कर कुछ बनने का सपना देखती है तब उसे विविध प्रकार से इमोशनल ब्लैकमेल किया जाता है। "जैसे माता पिता का यह कहना कि यदि तुम हमारी बात नहीं सुनोगी तो हमारा मरा मुँह देखोगी।" वह लड़की जिसका माता-पिता के सिवा कोई अपना है नहीं, उसे अपने सपना को भूलकर माता-पिता की बात मान लेती है और अपनी जिंदगी को उन्ही के नाम कर देती है। आज जब गाँव देहात में शिक्षा की पहुँच हो गयी है फिर भी बहुत से अभिभावक उसी परंपरागत सोच के शिकार है। 


इतनी बड़ी भूमिका बांधने की पीछे मेरा लक्ष्य एक ऐसी फिल्म की चर्चा करनी है जो पिछले सप्ताह रिलीज हुई है। फिल्म का नाम है "लापता लेडीज"। महिला सशक्तिकरण को केंद्र कर बनी यह फिल्म  आज से बीस वर्ष पहले की कहानी को लेकर चलती है। कहानी गाँव की है। कहानी की शुरुआत होती है विवाहोपरांत ससुराल जाते दुल्हन और दुल्हे के साथ। कहानी इतनी सी है कि ससुराल जाते वक्त ट्रेन में दुल्हा अपनी दुल्हन की जगह किसी और की दुल्हन घर ले आता है और उसकी दुल्हन खो जाती है। इस खोने और तलाश करने के बीच की कहानी हृदय को छूने वाली, चेतना जाग्रत करने वाली है। इस बीच कई ऐसे दृश्य आते हैं जो दर्शक को जोड़े हुए रहती है। दुल्हन की तलाश की यह फिल्म हर उस आम लड़की की स्वतंत्रता की बात करती है जो कुछ करना चाहती है कुछ बनना चाहती है। यह फिल्म हर लड़की के उस गुमशुदा जिंदगी की तलाश है जो रूढ़िवादी सोच के अंधेरे में खोयी हुई है। 


फिल्म में कोई बड़ा पात्र अथवा मुख्य पात्र नहीं है जबकि फिल्म की कहानी ही इस फिल्म का मुख्य पात्र है। पर जितने भी पात्र है सभी ने फिल्म में जान डाल दिया है। रवि किशन जिन्हें कुछ दिन पहले ''मामला लीगल है" में अच्छा अभिनय करते हुए देखा था, ने पहली बार कोई अच्छा और महत्वपूर्ण फिल्म किया है जिसमें उनका किरदार एक रिश्वतखोर पुलिस वाले की है जो कोई भी काम बिना रिश्वत के नहीं करता। अंत में वही रिश्वतखोर पुलिस एक लड़की की जिंदगी को आसमान छूने के लिए समाज की बेड़ियों से छुटकारा प्रदान करता है तब वहाँ रवि किशन सच्चे कलाकार लगते हैं वैसे सच्चा कलाकार वही है जो जिस पात्र का अभिनय करता हो वह उसमें घुलमिल जाय। अभिनय के बारे में मुझे ज्यादा नहीं मालूम होते हुए भी इस फिल्म का सबसे सशक्त पात्र मुझे रवि किशन लगे हैं। 


रवि किशन के अलावा जो दुल्हा- दुल्हन हैं। वे नये कलाकार है। नौसिखिया होना परीक्षा का समय होता। ये नये कलाकार उसमें न सिर्फ उत्तीर्ण हुए हैं बल्कि अव्वल आये है। इनके अलावा ट्वेल्थ फेल में मनोज शर्मा की माँ का किरदार निभाने वाली मंझी कलाकार गीता अग्रवाल, पंचायत वाले भूषण जी यानी दुर्गेश कुमार आदि ने उम्दा अभिनय किया है। संगीत सभी अच्छे है बस एक-दो गँवई लोक गीत दिया जाता तब और अच्छा रहता पर श्रेया और अरिजीत की आवाज दर्शक को बांधने में सफल होती है।


गाँव की मिट्टी, गाँव की खुशबू, गाँव का परिवार, गाँव के लोग सब है इस फिल्म में। फिल्म की खूबसूरती की एक और महत्वपूर्ण विशेषता इसके डायलॉग है जो हँसाते है, गुदगुदाते हैं, बीच में ठहाका मारने के लिए भी उकसाते हैं और  कुछ डायलॉग ऐसे हैं जो साथ ही यह सोचने के लिए विवश करते है कि क्या जो एक लड़की के साथ हो रहा है वह जायज़ है, उसके सपने को मारना जायज़ है? नहीं कतई नहीं। आज भी गाँव-देहात की लड़की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर पा रही है? सौ में से दस-बीस शहर में आकर सपने साकार करती भी है तो अस्सी उसी खंडहर में पीछे छूट जाती है। आज सरकार जो बेटियों, महिलाओं के लिए विविध प्रकार की योजना ला रही है उसे चाहिए कि जमीनी स्तर पर जाकर उस योजना को कार्यान्वित करें। 


आज विश्व महिला दिवस है। इस उपलक्ष्य पर आप सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आप इस फिल्म को अवश्य देखें और दूसरों को दिखाएं। वैसे पठान, जवान, फाइटर देखने वाले दर्शक इस प्रकार की छोटी बजट पर महान उद्देश्य वाली फिल्में जो जमीन से जुड़ी होती है, देखना पसंद नहीं करते हैं। लेकिन एक संवेदनशील दर्शक इस प्रकार की फिल्म जरूर देखेगा। 

धन्यवाद। 

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