प्रेमचंद जयंती विशेष

साहित्य का उद्देश्य निबंध की समीक्षा

प्रेमचंद, जिनको बचपन से ही पढ़ते आ रहे उनकी आज १४०वीं  जयंती है। उनकी प्राय: रचनाएं आदर्श से पूर्ण है। यथार्थ का आगमन उनके परवर्ती रचनाओं में मिलता है । जिसके कारण उनके साहित्य को आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्य कहा जाता है। हमें पता है कि उन्होंने लगभग ३०० अधिक  कहानियाँ लिखी हैं और १५ उपन्यास की रचना की है । उन्होंने कुछ बाल रचनाओं की भी रचना की है। आज हम इनके कहानियों तथा उपन्यासों पर बात न करके इनके साहित्य के प्रति वैचारिक दृष्टि को देखेंगे।

       आज हम इनके द्वारा रचित निबंध "साहित्य का उद्देश्य"  की समीक्षा करेंगे जो मूल रूप से प्रेमचंद द्वारा १९३६ के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्षीय संबोधन के रूप में दिया गया था । बाद में इसे निबंध के रूप में प्रकाशित किया गया। इस निबंध में लेखक साहित्य और साहित्यकार का समाज के प्रति क्या कर्त्तव्य है तथा साहित्य का सृजन क्यों होना चाहिए,आदि बिंदुओं पर एक सारगर्भित और प्रेरणादायक विचार प्रस्तुत करते हैं।
    

  साहित्य को प्रेमचंद "जीवन की आलोचना" मानते हैं अर्थात जीवन को कैसे और बेहतर जीवन में तब्दील किया जाए, को प्रेमचंद साहित्य का लक्ष्य मानते हुए बतलाते हैं कि "साहित्य साधन हैं और जीवन साध्य" । जिस प्रकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा करते थे.." साहित्य का लक्ष्य मनुष्य है।" हम उसी तरह प्रेमचंद बतलाते हैं कि "साहित्य का लक्ष्य मनुष्य के जीवन में देवत्व को जगाना है।" देवत्व के जगने से ही मनुष्य के अंदर मनुष्यता का जागरण होता है। इसलिए प्रेमचंद कहते हैं "और सोना मृत्यु का लक्षण है।" प्रेमचंद मानते हैं कि साहित्य मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं है। इसलिए वे रीतिकालीन साहित्य को भी खारिज करते हैं और प्रगतिशील चिंतन से समाहित साहित्य को मनुष्य के लिए जरूरी मानते हैं।  वे साहित्य के माध्यम से मनुष्य के अंदर सौंदर्य, संवेदना, भावना उच्च चिंतन की लौ  को जलाने की आशा करते हैं। वह कहते भी हैं कि "साहित्यकार का काम अमीरों का याचक बनने का नहीं बल्कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना को आगे बढ़ाने वाला होना चाहिए।  वे धर्म, अर्थ और राजनीति के पीछे चलने वाले साहित्य को नहीं बल्कि इनके आगे मसाल बनकर रास्ते को आलोकित करते हुए चलने का आह्वान करते हैं।"
     प्रेमचंद प्रेम को विशेष महत्व देते हैं। वह कहते हैं "जहां सच्चा सौंदर्य प्रेम हैं, जहां प्रेम की विस्तृति है, वहां कमजोरियां कहां रह  सकती है। प्रेम ही तो आध्यात्मिक भोजन है और सारी कमजोरियाँ इसी भोजन के ना मिलने अथवा दूषित भोजन के मिलने से पैदा होती हैं।"
    प्रेमचंद मनोरंजन प्रधान तथा लोकप्रियता प्रधान साहित्य को विशेष महत्व नहीं देते हैं। उनका मानना है कि "साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। उसका दर्जा इतना ना गिराई, वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई है।"
      प्रेमचंद मानते हैं कि साहित्य मनुष्य के अंदर सच्चाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और समता की भाव की पुष्टि करता है। जहां यह भाव है वहीं दृंढता है और जीवन है। जहां इनका अभाव है, वहां फूट विरोध, स्वार्थपरता, द्वेष शत्रुता और मृत्यु है। इसीलिए प्रेमचंद साहित्य को जीवन के उच्च मानदंडों का द्योतक मानते हैं। वह कहते भी हैं कि "आदर्श व्यापक होने से भाषा अपने आप सरल हो जाती है।" अर्थात जीवन के उचित मूल्य साधारण सरल जीवन में ही समाहित होते हैं। जिसका जीवन सरल, सीधा और सादा होगा, उसका आदर्श और उसकी भाषा स्वयं सरल हो जाएगी।
प्रेमचंद निबंध के अंत में कहते हैं कि "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें ऊंची चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो जो हम में गति और बेचैनी पैदा करें।"
इस प्रकारकार हम देखते हैं कि प्रेमचंद जी साहित्य को और साहित्यकार को समाज के लिए कितना उपयोगी मानते हैं और उन दोनों के कर्तव्यों को समाज के प्रति क्या है, वह बताते हैं। हमें अपने साहित्य का मानदंड ऊंचा करना होगा जिसमें वह समाज की अधिक मूल्यवान सेवा कर सके, जिसमें समाज में उसे वह पद मिले जिसका वह अधिकारी है जिससे वह जीवन के प्रत्येक विभाग की आलोचना- विवेचना कर सके।

🌸~~~~~~~~प्रेम कुमार साव~~~~~~~~~🌸


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